वैसे तो भारत के राज्य उत्तराखंड जो हिमालय की सुन्दर पहाड़ियों में है। अपनी सुंदरता की वजह से देवभूमि या स्वर्ग भूमि कहा जाता है। लेकिन वर्तमान में कह सकते है हर परिवार से एक व्यक्ति भारत की सीमा पर अपनी सेवाएं देता है। फौज में जाना यहाँ हर युवक का सपना है। और जो नहीं जा पता वो इसे अपना सबसे बड़ा दुर्भाग्य समझता है। जिस कारण से इसे वीरों की भूमि भी कहा जाता है लेकिन यह वीर भूमि अब से नहीं है यह सदियों से थी।

ऐसा नहीं है की ये देशभक्ति एक दम से आ गई। यह पहले से थी। यह वीर भूमि सदा से थी इस का प्रमाण इस बात से लगाया जा सकता है कि मुगलों की लाख कोशिश के बाद भी वह कभी उत्तराखंड के पहाड़ी इलाको पर अपना शासन स्थापित नहीं कर पाए और जितनी बार प्रयास किया मुहं की खाई।

ऐसी ही एक वीरता की कहानी प्रशिद्ध है उत्तराखंड में बात सन् 1628 ई. की है उस समय उत्तराखंड के गढ़वाल “जिसे गढ़देश भी कहा जाता था” में पंवार वंश के प्रतापी राजा अजयपाल के वंशज राजा महिपतशाह का शासन था जिनकी राजधानी श्रीनगर थी। जिनकी सेना में माधो सिंह भंडारी, रिखोला लोदी और बनवारीदास जैसे पराक्रमी सेनापति थे। उनकी एक सुन्दर रानी थी जिसका नाम कर्णावती था और एक पुत्र (पृथ्वी) था जिसकी आयु अभी बहुत कम थी।

“राजा महिपतशाह का स्वाभिमान और शाहजहां का प्रतिशोध”
राजा महिपतशाह बड़े स्वाभिमानी एवं पराक्रमी थे। उसी समय आगरा की राजगद्दी पर शाहजहाँ का राज्याभिषेक हुआ जिसमे गढ़देश के शासक महिपतशाह शामिल नहीं हुए वह उनके लिए शाहजहाँ की अधीनता स्वीकार करने जैसा था। इस बात से बादशाह बहुत ही क्रोधित हुआ और गढ़देश पर आक्रमण करने के लिए अवसर खोजने लगा। राजा महिपतशाह के बादशाह के इस व्यव्हार से मुस्लिम लेखकों ने उसे एक अक्खड़ राजा बताया है। और कई जगह उन्हें स्वतंत्र राजा भी कहा है। जिसे अनुश्रुतियों में गर्व-भंजन तथा मोलाराम द्वारा महाप्रचंड और भुजदंड कहा गया है।

एक समय सन् 1635 ई. राजा की मृत्यु हो गई। बादशाहनामा के अनुसार श्रीनगर के राजा की मृत्यु का समाचार पाते ही नजाबतखान ने गढ़वाल पर आक्रमण की योजना बनाई वो गढ़देश की सेना के रण कुशलता और शौर्य से अपरिचित था।अनुश्रुति यह भी है कि किसी ने मुगल शासक को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदाने है।

इस समय राजकुमार पृथ्वीपतिशाह की अवयस्क अवस्था थी मुगल सेना प्रतिशोध की आग में गढ़देश पर आक्रमण करने के लिए हरिद्वार तक पहुंच चुके थे। गंगा किनारे लक्ष्मण झूला उनका अगला ठिकाना था इस अभियान में उनकी सहायता पड़ोसी सिरमौर के नरेश मान्धाता प्रकाश भी कर रहे थे। उस समय राजमाता कर्णावती गढ़वाल की संरक्षिका के रूप में शासन कर रही थी।

‘स्टोरिया डू मोगोर’ का लेखक ‘निकोलस मनूची’ लिखते है की मुगलों की एक लाख पदाति सेना एवं तीसहजार घुड़सवार सेनाओ ने गढ़राज्य पर आक्रमण किया किन्तु मुगल शासक शाहजहाँ को विदित न था कि यह वीरांगना साक्षात दुर्गा का रूप है थी।

“रानी की युद्ध की रणनीति और शत्रुओं की नाक काटना”
रानी के गुप्तचरों ने रानी को स्थति से अवगत कराया। रानी ने अपने सलाहकारों के साथ बैठक की और रणनीति बनाई मुगल सेना का बिलकुल भी विरोध करने का आदेश दिया और सन्देश भिजवाया कि हम मुगल शासक शाहजहाँ के लिए शीघ्र ही दस लाख रुपये उपहार स्वरुप भेज रहें है। नजावतखां को लगा की महारानी ने आत्मसमर्पण कर लिए है और वह रानी की प्रतीक्षा करने लगा इस बीच गढ़वाल की सेना को सभी पहाड़ी मार्ग बंद करने का समय मिल गया मुगल सेना बहुत दिन हो चुके थे जंगल में वह खाद्य सामग्री की कमी के कारण जंगलो में भूख और बीमारी से तड़पने लगी थी।

गढ़वला की सेना ने मौका देख कर मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। साक्षात महादेव की भांति मुगल सेना की छाती पर चढ़ कर तांडव करने लगे। अपनी सेना का सर्वनाश होते देख नवाजतखां ने आत्मसमर्पण कर लिया। रानी कर्णावती ने उन्हें जीवनदान तो दे दिया लेकिन उनको गढ़देश पर आक्रमण की ऐसी सजा ( रानी ने बचे हुए सभी मुगल सैनिको समेत नजावतखां की नाक काट दी ) दी कि उन्हें इतिहास में नक्कटीराणी (नाक काटने वाली) के नाम से जाना गया। कहा यह भी जाता है कि रानी ने मुगल सैनिको की कटी हुई नाक को “लिफाफों” में बांध कर के शाहजहां के दरबार में पहुँचाया इस से रानी ने स्पष्ट संकेत दिया था कि फिर कभी गढ़वाल की तरफ आँख उठा कर कभी मत देखना। नजावतखां तो इससे इतना शर्मसार था उसने मैदानों की तरफ लौटते समय आत्महत्या कर ली थी।
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